Monday, December 1, 2008

इस बार नहीं

इस बार नहीं
इस बार जब वोह छोटी सी बच्ची मेरे पास अपनी खरोंच ले कर आएगी
मैं उसे फू फू कर नहीं बहलाऊँगा
पनपने दूंगा उसकी टीस को
इस बार नहीं
इस बार जब मैं चेहरों पर दर्द लिखा देखूँगा
नहीं गाऊँगा गीत पीडा भुला देने वाले
दर्द को रिसने दूंगा,उतरने दूंगा अन्दर गहरे
इस बार नहीं
इस बार मैं ना मरहम लगाऊँगा
ना ही उठाऊँगा रुई के फाहे
और ना ही कहूँगा की तुम आंखे बंद करलो,गर्दन उधर कर लो में दवा लगता हूँ
देखने दूंगा सबको हम सबको, खुले नंगे घाव
इस बार नहीं
इस बार जब उलझने देखूँगा,छटपटाहट देखूँगा
नहीं दौडूंगा उलझी डोर लपेटने
उलझने दूंगा जब तक उलझ सके
इस बार नहीं
इस बार कर्म का हवाला दे कर नहीं उठाऊँगा औजार
नहीं करूंगा फिर से एक नयी शुरुआत
नहीं बनूँगा मिसाल एक कर्मयोगी की
नहीं आने दूंगा ज़िन्दगी को आसानी से पटरी पर
उतारने दूंगा उसे कीचड में,टेढे मेढे रास्तों पे
नहीं सूखने दूंगा दीवारों पर लगा खून
हल्का नहीं पड़ने दूंगा उसका रंग
इस बार नहीं बनने दूंगा उसे इतना लाचार-
की पान की पीक और खून का फर्क ही ख़त्म हो जाये
इस बार नहीं
इस बार घावों को देखना है
गौर से
थोड़ा लंबे वक्त तक
कुछ फैसले
और उसके बाद हौसले
कहीं तोः शुरुआत करनी ही होगी
इस बार यही तय किया
है

-- प्रसून जोशी

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